माय डियर ग़रीबों, तुम भी एक सपना देखो

फिर से एक ज़िद पैदा हो रही है
देर से ही सही, बहुत दिन बाद सही
देखूंगा एक शानदार सपना फिर से
जवानी की तरह भावनाओं को लगा दूंगा
उतार चढ़ाव के रास्तों से गुज़र जाऊंगा
बिना रास्ते के चलता चला जाऊंगा
खुद को कुचलता हुआ, खुद को ढूंढता हुआ
उसकी ज़ुल्फों के अंधेरे से देखता हुआ
पाश की कविताओं से झुर्रियों को मिटाता हुआ
प्रेम को स्थगित करने से पहले प्रवाहित होकर
कम्युनिस्टों के पतन के इस काल में
कांग्रेस से समर्थन वापस लेकर
नायडू से मिलता हुआ कहीं चला जाऊंगा
हिंदुओं को बचाने के संघर्ष में वरुणों से मिलकर
मुसलमानों से कहता चला जाऊंगा
तुम भी देखो, फिर से देखो मेरे जैसा सपना
देर से ही सही, बहुत दिनों बाद सही
सोनिया के वादों से निकलने की चाहत पैदा कर
किसी मायावती के जाल में उलझने से पहले
चख लो समाजवादी के फेंके हुए दानों का स्वाद
सेक्युलर होने के तमाम रास्तों पर कम्युनलों से
खुलकर कर लो तुम मुलाकात
महान भारत के गर्भ में पल रहे कुंठा का परिष्कार
ये तुम ही करोगे मुसलमान, हिंदू गर्व में डूबा है
तुम किसके प्रेम में डूबते उतराते रहे हो
आओ चलो प्रेम में खुद को प्रवाहित कर
उन हिंदुओं को साथ ले लो जो कुंठित है गर्वहीन हैं
चलो फिसल कर चलते हैं ग़रीबी रेखा से नीचे
जहां हर रेखा एक भद्दी और पिटी हुई लकीर लगती है
किसी अर्थशास्त्री के साथ बैठकर देखते हैं सपना
गर्लफ्रैंड को लेटर लिखने से पहले, लिखेंगे एक चैप्टर
प्यारे ग़रीब, मज़हब ने रास्ता रोक दिया तुम्हारा
वर्ना तुम भी हमारी तरह किसी रेखा से ऊपर होते
ग़लती तुम्हारी भी तो है इसमें
तुमने कहां देखा फिर से कोई शानदार सपना
किसी के दिखाये हुए सपने से रात नहीं कटती है
बिना बताये हुए रास्ते से गुज़रने का हौसला पैदा करो
फिर से अपने भीतर अपना कोई सपना पैदा करो
निकल पड़ो, भावनाओं के उतार चढ़ाव के सफर में
बिना रास्ते के चल पड़ने का साहस फिर पैदा करो
गर्लफ्रैंड को तभी लिख सकेंगे एक अच्छा सा खत
डियर डार्लिंग, एक महीने की बात है, फिर अपनी रात होगी
रेखा के नीचे के लोगों के ऊपर आते ही बचा हुआ वक्त हमारा होगा
तुम्हारे चेहरे पर फिर से फेरता रहूंगा उंगलिया
किसी दुपहरी, सेंट्रल पार्क के बेंच पर मैगी खाते हुए
नवभारत टाइम्स की चादर बनाकर, हिंदुस्तान को ओढ़ कर
टाइम्स ऑफ इंडिया की टोपी पहनकर, दिल्ली टाइम्स में छपे
तमाम नग्न स्तनों से अपनी कल्पनाओं को आबाद कर देंगे
किसी पार्टी में झूमते शराबियों की तस्वीरों से सपना दिखा देंगे
भारत के ग़रीबों रेखा से ऊपर उठकर जब इस तरफ आओगे
ऐसी ही किसी पार्टी में फोटो खिचवाओगे
फिर हमारी तरह चिंताओं के कारोबारी बन जाओगे
गरीबी दूर कर देना एक आसान सपना है
मुश्किल है बिना पैसे के अमीर कहलाना
विकल्प न इधर है न उधर है डार्लिंग
ग़रीबों को हम क्या बतायें रास्ता किधर है
बस एक सपना है, फिर से देखने की चाहत है
माय डियर ग़रीबों तुम भी एक सपना देखो
उतार चढ़ाव से गुज़रने की ज़िंद फिर से पैदा कर लो
अंजाम की मत सोचो, सपने की सोचो तुम
एक ज़िद की तरह देखो अब अपना सपना

9 comments:

Aadarsh Rathore said...

सपने ही देखते आ रहे हैं अब तक, औक किया ही क्या है.....

prabhat gopal said...

kafi gahri soch rakhte hai sir

सुशील छौक्कर said...

सच गरीबों को सपना खुद ही देखना होगा। और उसे पूरा करना होगा। अन्यथा ये नेता......।

वैसे लिखा हमेशा की तरह उम्दा है।

Hari Joshi said...

अगर उस खास आदमी ने अपने सपने देखने शुरु कर दिए तो रोटियों से खेलने वालों को दिन में तारे दिखाई देंगे।
बेहतरीन रचना।

JC said...

Jahan tak 'soch' ka sawal hai, bardhiya hai. Kintu 'Hindustan' mein janma liya hai to kuch oonchi soch dhoondhni hogi:)

(Yadyapi anusandhan jaari hain
Manav mun per ubherte swapna per Vaigyanik anusandhan se pata chala
Sapne to janwar bhi dekhte hain
Kya dekhte hain nahin maloom:
Shayad aadmi ban-ne ke
Aur manav roop mein bhi
Machhar ki tarah khoon peene ka
Gadhe saman (manch per) rainkne ka
Aur Kabhi kabhi
Dulatti jhardne ka bhi:)
Adi, adi, adi...
Kyunki 84 lakh yoni ke karm ka
Anubhav hai her atma ko
Mansa aur karma aur vacha bhi...

Kintu shayad na jante hue
Parmatma ki hi ichhanusar
Jo swayam ekmatra hasil ker paya
Nirdharit lakshya
Marathon Race mein bhag lete
Sapne mein hi shayad
Sare Swarna-padak ke haqdar jaise
Shayad her 'slumdog'
Athva 'garibi ki
Andekhi mayavi rekha jaise bhi
Asankhya dhavakon mein se ek vijeta

Aj ka wo 'Hindu'
Ya kahlo prarambhic kal ka 'Hindu'
Ant mein mathe mein Indu wala
Trinetradhari bhi
Arambh mein agyani tha
Yani 'shunya' tha
Jo ant mein akela anant ban paya
Aur Mahesh kahlaya
Birla athva Ambani jaise...

Aur her kisi sathi ko wo tab se
Her ek ke 84 lakh roop
Sapnon mein hi dekh raha hai
Apne Teesre Netra mein
Her 'Break ke bad'
Ek ke baad ek
Aur phir lamba 'break'
Brahma ki majboori ke karan:)

Hamari jaisi 'atripta atmayein'
Swayam bhatak rahi hain
Aur bhatka bhi rahi hein
Anya atripta atmaon ko bhi
Shabd ke jaal mein phansa...

Mano ya na mano
Aisa hamare poorvaj
Gyani rishi-muni adi adi
Kah gaye santvana dete
Ya satya ka raaz kholte...
"Satyam Shivam Sunderam"
Shiv hi stya hai
Shiv hi sunder hai:)

Anonymous said...

किसी दुपहरी, सेंट्रल पार्क के बेंच पर मैगी खाते हुए
नवभारत टाइम्स की चादर बनाकर, हिंदुस्तान को ओढ़ कर
टाइम्स ऑफ इंडिया की टोपी पहनकर, दिल्ली टाइम्स में छपे
तमाम नग्न स्तनों से अपनी कल्पनाओं को आबाद कर देंगे

इस शब्दों में कितनों की मंझी ठोक दी जनाब ने

hamarijamin said...

Ravish! ab sapane ko bhi hathiya liya gaya hai..sapanoan par bhi corporate kabja!

Unknown said...

Im bound to coment...nice, very nice....i like the way u hav written this post.

bikram said...

अभी दफ्तर में हूँ फुर्सत मिली तो कविता पढ़ ली. घर जाते जाते भूलना तय है. सपना तो मैं ज़रूर देखूँगा. आज नैनो आई है, सपने में लक्की ड्रा में अपना भी नाम निकलेगा.लेकिन बाकी पैसे कहाँ से दूंगा इस टेंशन में कमबख्त सपना टूट जायेगा. भाई एक लाख भी कोई मामूली रकम है क्या. फिर कल दफ्तर आऊंगा और कोई झाड़ फानूस पढ़ डालूँगा.