आश्रम जाम पर उपन्यास- पार्ट टू

क़ातिल रफ्तार के लिए बदनाम ब्लू लाइन भी जाम में धंस गई थी।ड्राइवर अपनी भुजाओं को फैला अंगड़ाई लिये जा रहा था। सामने बोनट पर बैठी महिला पास आती उसकी भुजाओं से खुद को बचाती जा रही थी। दिल्ली को कोसती जा रही थी। उसके सामने देखने के सारे रास्ते बंद थे। सामने की सड़क पीठ के पीछे थी और उसके सामने अधेड़ लोग झुके चले आ रहे थे। अपनी ब्लू लाइन की इस बेचारगी पर ड्राइवर मर्दाना होने के अन्य रास्तों को बड़ी हसरत से तलाश रहा था।

बाहर से कंडक्टर की थपथपाहट सप्तम स्वर में कर्कश हुई जा रही थी। कंडक्टर उसे देखते ही रूकी हुई बस को थपथपाने लगा था। हर शाम आश्रम पर पहुंच कर उसकी बेचैनी बढ़ जाती। अपने दफ्तर में घूरे जाने की एक पूरी शिफ्ट पूरी करने के बाद सुधा के लिए वो आखिरी बस हुआ करती थी। लेकिन कंडक्टर की शक्ल याद दिला देती थी कि यह बस आखिरी है,लेकिन
बस में गुज़रने वाले अनुभव अभी शुरू हुए हैं। कंडक्टर सुधा के लिए सीट रखता था। कई बार सुधा ने मना कर खड़े खड़े सफर करने का इरादा किया। लेकिन जाम में शरीर पर गिरते देहों ने उसे हिकारत से भर दिया था। बहुत हसरत से सुधा ने बोनट पर बैठी महिला को देखा था। दोनों की नज़र टकराई और सहमति बन गई कि बस में सफर का यही रास्ता है। सीट ढूंढ लो, कम से कम से बचने का रास्ता मिल जाता है। कंडक्टर की बदनीयति से मिली सीट पर सुधा ने पीठ टिकाई और बहुत देर तक सोचती रही...काश ये बस जाम में न फंसती। कम से कम तकलीफों का सफर कुछ छोटा हो जाता।

गुप्ता जी सेंट्रल सेक्रेटेरियट से इस बस में बैठे थे। रास्ते में कई बार सो कर उठ चुके थे। हर बार लगता कि घर का स्टाप आ गया लेकिन पता चलता कि वहीं हैं,आश्रम जाम में। शीला दीक्षित की कामयाबी की कहानी कहते फ्लाईओवर से लुढ़कती तमाम गाड़ियां आश्रम मोड़ पर बेसुध निढ़ाल पड़ी रहती है। गुप्ता जी लेडीज सीट पर बैठे घर पहुंचने का इंतज़ार करते रहे।

तभी बस के बोनट पर बैठी महिला की नज़र कार में करीब आ रहे उन दोनों पर पड़ गई। नज़र ड्राइवर की भी पड़ी। लेकिन उसने सीटी बजाकर माहौल बदमज़ा कर दिया। महिला सोचती रही कि काश कार होती। जाम में तब भी होते मगर ऐसे न होते।
दिल्ली की बसों में गंधाते मर्दों की सड़ी नज़रों से सामना न होता। ड्राइवर की सीटी कार तक नहीं पहुंच सकी। गनीमत था कि कार के शीशे बंद थे। और अंदर बैठे जोड़े ने ऊपर नज़र तक नहीं की।

ड्राइवर ने रेडियो का वाल्यूम तेज कर दिया था। बस के भीतर जाम बढ़ती जा रही थी। सीट पर बैठे लोगों ने बाहर देखना बंद कर दिया था। ब्लू लाइन के भीतर की व्यथा बाहर सड़क पर आते आते हार्न के शोर में खो जा रही थी। सुधा ने कंडक्टर को हिकारत से देख कर इशारा कर दिया था। दोनों तरफ की सीटों के बीच खड़ी लड़कियों की पीड़ा दिल्ली के इतिहास के पन्ने में दर्ज नहीं हो सकी। न ही इन लड़कियों ने किसी थाने में बात दर्ज कराई। कुछ शरीफ लोगों ने इन लड़कियों के लिए जगह बनाया भी लेकिन पीछे से आती भीड़ ने धक्का देकर बस का भार इन लड़कियों की पीठ पर लाद दिया। विंडो सीट पर बैठ लड़की ने अपने कान में इयर फोन डाल लिए थे। रे़डियो जौकी उसके ज़ख्मों को हल्का कर रहा था। उसे पता था तीन किमी आगे चौराहे पर ब्वायफ्रैंड बाइक पर इंतज़ार कर रहा है। वह सिर्फ उस दिन का इंतज़ार कर रही थी कि कब कार होगी। आराम से बैठ कर जाएंगे। उसने डाउन टू अर्थ पत्रिका का कार से लगने वाली जाम का अंक फाड़ दिया था। अपनी सहेलियों से कह कर आई थी कि कोई बस के भीतर के जाम को हल्का करने के लिए सिग्नल या फ्लाईओवर क्यों नहीं बनाता। ईयरफोन से आती आवाज़ ने उसके विरोध के तेवर कम करने शुरू कर दिये थे तभी उसकी नज़र उस कार पर पड़ी जिसके भीतर दो लोग करीब आ चुके थे। एक ही आश्रम चौक के जाम में अनुभव अलग अलग हो रहा था। एमएनसी कंपनी में रिसेप्शनिस्ट का काम करने वाली प्रियंका कार के खरीदने के सपने में खो गई जिसकी अगली सीट के बीच गैप तो होगा मगर उस गैप में वो तमाम मर्द नहीं होंगे जो भीड़ का फायदा उठा कर ब्लू लाइन के भीतर लड़कियों की पीठ पर अपनी शराफत कुचलते रहते हैं। हर दिन एक लड़की की मौत होती रहती है। दिल्ली की तमाम लड़कियों ने इन अनुभवों को हमेशा के लिए अपने भीतर ज़ब्त कर लिया है। अपने पतियों को भी नहीं बताया। भाइयों को भी नहीं। दोस्तों को भी नहीं। बस जब भी जाम में फंसती है इनकी धड़कने किसी शैतानी हमले की आशंका में बढ़ जाती हैं।

जारी....

11 comments:

bhuvnesh sharma said...

बढि़या...

Jitendra Chaudhary said...

बहुत अच्छा। बहुत अच्छा चित्रण किए हो। तुम यार पत्रकारिता मे गलती से आ गए हो। उपन्यास लिखो...झकास बिकेंगे।

Unknown said...

प्रेमचंद जी के रिश्तेदार,
आपका उपन्यास पढ़ने में मजा आ रहा है,अगले पार्ट का इंतजार रहता है। लेकिन एक बात है,उपन्यास के बहाने आप अपने पात्रों में उलझे रहते होंगे और इतनी देर में जाम खुल जाता होगा। फिलहाल तो आपको जाम में होने वाली खीज से मुक्ति मिल गयी है बस इसी बात का दुख हो रहा है......

Unknown said...

भाई - आप ने सेंटिया दिया - उमर का एक हिस्सा सिद्धार्थ एक्सटेंशन में गुज़ारा - रोज़ आश्रम चौक पार करना पड़ता था - एक दिन एक ठो एक्सीडेंट भी हुआ - मोटर सायकल तहस नहस हो गई लेकिन जान बची रही - आप सब्जेक्ट मैटर में बहुत न खोइयेगा - लिखते रहें - सादर - मनीष [ वैसे सुधा ले आए - चंदर भी हैं क्या?]

ravish kumar said...

जितेंद्र जी
पत्रकारिता छोड़ देंगे तो रोटी कहां से खायेंगे। हौसला बढ़ाने के लिए शुक्रिया।
जोशिम साहब
क्या बात है। लगता है कहानी दिल के करीब पहुंच रही है। मैं भी इन दिनों सिद्धार्थ एक्सटेंशन में किराये का घर खोज रहा हूं। ताकि जाम की सरहद पर पहुंच कर सफर खत्म हो जाए।
अपराजिता जी
प्रेमचंद की रिश्तेदारी आसान नहीं। न्यौता पूरा करने में ही जान निकल जाएगी।

Dr. sarita soni said...

aaj subah FM pe bola ja raha tha ki 8th march women day aa raha hai "Mahila shashaktikaran" ki baate per apka ye lekh agar us din sare news paper ke front page pe chap jaye to aasliyat samne aa jaye.

wo sabhi mahilaye jo aapke jivan se judi hai wo badhai ki patra hai ek purus ki isi saff soch bahut kam dekhne ko milti hai.

Dipti said...

क्या इस उपन्यास में सिर्फ़ दुखी और परेशान हाल लोगों का ही ज़िक्र हैं। या फिर कुछ मुझ जैसे भी है, जो बहुत जल्दी और बहुत देर तक उदास या झुंझलाए नहीं रह सकते हैं।
-दीप्ति।

अबरार अहमद said...

रवीश भाई मैं थोडी देर से जुडा आपसे लेकिन मैंने आपके उपन्यास का पहला और दूसरा दोनों भाग पढा। महानगरीय जाम और उसमें पैदा होने वाले हालात का वाकई बढिया चित्रणा किया है आपने। इंतजार रहेगा इस उपन्यास के अगले भाग का।

Smriti Dubey said...

उपन्यास में जिस तरह से बस यात्रियों और ख़ास तौर पर महिलाओं की बेहाल हालत को काफी संजीदगी से बयां किया गया है। जाम में चाहे आप कार में हों बस में हों या फिर टूव्हीलर पर होता वही सब ढाक के तीन पात है।
स्मृति

vineeta said...

बहुत अच्छा, मैं भी जाम की इस पीड़ा से गुजर चुकी हू. कहते है न की खग ही जाने खग की भाषा, वैसे रवीश जी वस काफ़ी अच्छा प्रयास किया है जो आम महिला के दर्द को शब्दों मैं उतार दिया है. उन दग्गामार बसों मैं पीठ पर फिरते अंजान हाथो से बचने की कोई मुहीम सफल नही हो पाती. कोई चेहरा घूर रहा है टू कोई गर्दन के नीचे नज़र गडाये सीट पर जमा बैठा है. कोई आगे चिपक रहा है टू कोई पीछे से हाथ मार रहा है. कई बार टू पता ही नही चलता की किसका हाथ बदन पर फिर रहा है. ज्यादा किसी को टोक दिया टू कार मैं चला करो मैडम, जैसे जुमले हवा मैं तैरते है. मैं टू ख़ुद सीट के लालच मैं कंडक्टर से एक अनकहा सा संवाद बनाये रखती हूँ. मेरे बस मैं आने पर अगर कंडक्टर मुस्कुराया टू समझो सीट मिल गयी. हालांकि ये सोच कर मुजे अपने पर गुस्सा भी आता है और अपनी लाचारी पर दुःख भी होता है, लेकिन क्या करे, बस के दुर्यधनो से बचने के लिए ये समजौता फिर भी ठीक है. कभी कभी टू इतनी हद हो जाती है कि घर तक आते आते किसी मस बदन बचाने कि हिम्मत भी नही बचती और मन कहता है , छु लो, अब टू स्टॉप आने वाला है. कई बार भीड़ भरी बस मैं दुपट्टा फस जाता है और कई बार सेंदल रह जाता है. क्या करे. मैं तो दिल्ली कि बसों मैं लडकियो कि दशा पर हिन्दुस्तान मैं लेख लिख चकी हूँ.

ajit rai said...

अभी तक सिर्फ प्राइम टाइम पर देख कर आपको अपने नजरिये से तौलता था ! कभी कांग्रेस का दलाल कभी बिकाऊ मीडिया और न जाने कितने दुर्भावनाओ से , तो कभी इस भ्रम का शिकार हो जाता कि आप भी लीक से अलग दिखने के टशन के शिकार है ! सर जी आप वाकई हर विषय, जीवन के हर पहलू को बड़ी बारीक नजर से देखते है !राग दरबारी मैंने भी पढ़ा है ,शुक्ला जी का गवई जीवन और उसकी मानसिकता का व्यंग्यात्मक चित्रण पाठक को बाँध लेता है !"आश्रम जाम " मुझे उससे एक रत्ती कम नहीं लगा ,पढ़कर मजा आ गया !